Tuesday, 19 March 2019

SON

#बेटे
डोली में विदा नही होते,
और बात है मगर

उनके नाम का "ज्वाइनिंग लेटर"
आँगन छूटने का पैगाम लाता है !

जाने की तारीखों के नज़दीक आते आते
मन बेटे का चुपचाप रोता है

अपने कमरे की दीवारें देख देख
घर की आखरी रात नही सोता है,

होश संभालते संभालते
घर की जिम्मेदारियां संभालनेने लगता है

विदाई की सोच में बैचेनियों
का समंदर हिलोरता है

शहर, गलियाँ , घर छूटने का दर्द समेटे
सूटकेस में किताबें और कपड़े सहेजता है

जिस आँगन में पला बढ़ा, आज उसके छूटने पर
सीना चाक चाक फटता है

अपनी बाइक , बैट , कमरे के अजीज पोस्टर
छोड़ आँसू छिपाता मुस्कुराता निकलता है ...

अब नही सजती गेट पर दोस्तों की गुलज़ार महफ़िल
ना कोई बाइक का तेज़ हॉर्न बजाता है

बेपरवाही का इल्ज़ाम किसी पर नही अब
झिड़कियाँ सुनता देर तक कोई नही सोता है

वीरान कर गया घर का कोना कोना
जाते हुए बेटी सा सीने से नही लगता है

ट्रेन के दरवाजे में पनीली आंखों से मुस्कुराता है
दोस्तों की टोली को हाथ हिलाता
अलगाव का दर्द जब्त करता, खुद बोझिल सा लगता है

बेटे डोली में विदा नही होते ये और बात है ........

फिक्र करता माँ की मगर
बताना नही आता है

कर देता है "आन लाइन" घर के काम दूसरे शहरों से
और जताना नही आता है

बड़ी से बड़ी मुश्किल छिपाना आता है
माँ से फोन पर पिता की खबर पूछते
और पिता से कुछ पूछना
सूझ नही पाता है

लापरवाह, बेतरतीब लगते है बेटे
मजबूरियों में बंधे
दूर रहकर भी जिम्मेदारियां निभाना आता है

पहुँच कर अजनबी शहर में जरूरतों के पीछे
दिल बच्चा बना माँ के
आँचल में बाँध जाता है

ये बात और है बेटे डोली में विदा नहीं होते मगर...

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