एक बार वादी में- फिर जरूर आना-
वादी जब हरे से सफ़ेद होती है,
जब डल सफेद झीना सा पर्दा आंखो पर डाल-
मदमस्त होकर सोती है,
जब चीनार कोई शोर नहीं करता-
बस ख़ामोश किसी अधेड़ की तरह-
चुपचाप दिन गुज़रने का इंतज़ार करता है,
जब गुलमोहर सूख जातें हैं-
जब शाख़ों पर सेब नज़र न आते हैं,
जब परिंदें कहीं दूर निकल जाते हैं-
जब इंसानी शोर कहीं गुम हो जाते हैं,
तब एक बार वादी में-
फिर जरूर आना।
अच्छा, जिस तरह इंसानी जीवन में साल दर साल रंग बदलते हैं और इन्हीं गुजरते सालों में एक साल ऐसा भी आता है जिसमें सब रंगों से मुक्त होकर इंसान फाइनली बेरंग भी हो जाता है। ठीक कुछ कुछ इसी तरह वादी में भी हर साल रंग चढते भी हैं और उसे बेरंग भी करते हैं।
हर साल वादी जवाँ होती है हर साल वादी रवाँ होती है- हर साल ही बुढाती भी है और हर साल फिर जवाँ भी होती है और यह क्रम अनवरत जारी है। एक कभी न खत्म होते सिलसिले की तरह, ठीक एक नियंत्रित नाभिकीय संलयन अभिक्रिया की तरह।
शायद यही आदम और प्रकृति के बीच का अंतर भी है और बड़ी सीमा भी।
वादी में दो ही मौसम है- एक हरी बहार का और दूसरा सफ़ेद उतार का।
जिनका वादी से कोई वास्ता रहा है। वो बखूबी जानते हैं कि प्रकृति ने इस भूमि को क्या सौग़ात प्रदान की है, और क्यों ये जमीं इंसानों के लिये किसी जन्नत से कम नहीं।
कहते हैं कि काशी में दम तोड़ने से जन्नत मिलती है। पर वादी का क्या? जो जीते जी ही जन्नत से मिलाती है। हहह- थोडा सा कोन्टाड्रेक्टरी हो गया।
बहरहाल, वादी में दो ही मौसम होते हैं- एक सर्द और दूसरा बहुत सर्द।
सर्द मौसम की अपनी खासियत है- प्रकृति इस वक़्त वादी में अपने रोमांटसिज्म के चरम पर होती है। हरे बाग- हरे चिनार-हरे झरने- हरे सोते- हरी नदी- हरे चश्में - हरी डल- हरी ही हवा, हरा हर मौसम-
सब्बम् हरम् हरम्।
वादी बिल्कुल हरी हरी नज़र आती है- उसका ये हरापन ज़िंदगी में एक ताजगी एक रूहानियत से उसे सरोबार कर देता है। ऊँचे- ऊँचे हरे पहाड़- दूर तलक फैले हरे सब्ज़बाग़ यक़ीन मानों जैसे दोनों बाँहें पसारकर आमंत्रण दे रहें हों कि आ जाओ और कसकर लिपटकर तुम भी हमारी तरह हरे- हरे हो जाओ।
अपने हरे दामन में वादी बाकि बचे सभी रंगो को बड़ी मासूमियत और खामोशी से छुपा ले जाती है।
बहुत सर्द जो कि वादी में दो मौसमों के क्रम में दूसरा मौसम है। वादी उसमें बिल्कुल से बदल जाती है। अब कुछ भी हरा नहीं रहता। मानों एक बड़ी सी सूर्ख सफ़ेद चादर किसी ने बड़ी ही बेतरतीबी से वादी के सुडौल जिस्म पर बस फैंक सी दी हो।
सफ़ेद बाग- सफ़ेद चिनार- सफ़ेद झरने- सफेद सोते- सफ़ेद नदी- सफ़ेद चश्में- सफ़ेद ही डल- सफ़ेद सी हवा- सफेद से सब मौसम- सफेद ही सब हलचल।
ज़िंदगी एकदम से हरी से सफ़ेद हो चलती है। बडें बड़े सफ़ेद पहाड़- दूर तलक फैले सफ़ेद सब्ज़बाग़, मानों मुँह मसोडकर खडें हैं और कह रहें है कि हमारे पास न आओ- क़रीब आओगे तो हमारी ही तरह बस सफ़ेद रह जाओगे।
बहुत सर्द मौसम में जब वादी एकदम सफ़ेद रहती है तब जिस्मानी हरकत सुस्त और नब्ज धीमी होती चली जाती है। वादी सच में बेहद सुस्त नजर आती है- किसी नईं नईं बेवा की तरह जो अभी नया सलीखा धीरे- धीरे सीख रही हो।
ये वक़्त केवल और केवल गुज़ारने के लिये होता है। ये वक्त वादी में प्रकृति के आराम का वक़्त होता है। जब वो बेपरवाह होकर एक गहरी नींद में चली जाती है। फिर से तरोताज़ा होकर जागने के लिये।
सोचता हूँ काश वादी की तरह प्रकृति ने लगातार रंग बदलने की सहूलियत हम इंसानों को भी दी होती और इसी वजह से वादी से रश्क़ भी है और इश्क़ भी।
इश्क़ होना स्वाभाविक बात है और रही बात रश़्क की तो मामला थोड़ा सा पेचिदा है। काश कि इंसानी जीवन भी वादी की तरह होता- एक क्षण हरा और एक क्षण सफेद़ होता, फिर हरा- फिर सफ़ेद- फिर हरा होता।
इंसान भी बच्चा होता- जवाँ होता - बुढाता और फिर बच्चा हो जाता- और फिर बुढाता! हहहह, कल्पना ही मन में गुदगुदी और तन में बहुत सा कंफ्यूजन पैदा कर दे रही है।
प्रकृति ने अपने इस वरदान से इंसान को महरूम ही रखा।
उसने कहा है!
तू मर और लगातार मर-
और इसी क्रम में हम लगातार मर रहें हैं।
बहरहाल! ये प्रसंग विशेषकर उनके लिये हैं जिन्होंने हरी वादी और वादी में हरा मौसम देखा है। उनका वादी में फिर आना बनता है।
सफ़ेद वादी से मिलनें के लिये।
क्योंकि दोनों रंगों में केवल वो ही अन्तर कर पायेंगे।
एक बार वादी में- फिर जरूर आना,
तब!
जब वादी हरे से सफ़ेद होती है...
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