Sunday, 6 November 2022

वो यादें, वो सर्द यादें

फिकी पड़ गई है वो यादें,
वो खट्टी मीठी बातें,
वो सर्द रातें,
वो गीला तकिया,
वो कंबल जो छुपा लिया करता था ओढ़ में अपनी,
और कहता था ,
कीजिए जनाब, 
खुल कर इश्क कीजिए, 
चोरी थोड़ी ना कर रहे हैं।।

वो धीरे से गुनगुनाना,
हल्के हल्के से मुस्कुराना,
बीच बीच में मम्मी का आवाज लगाना,
रिचार्ज खतम हो जाने का अफसोस मनाना,
कितनी छोटी सी हैंये रात,
अपने आशिक दिल को समझाना,
पेपर की परवाह किए बगैर,
रातों बैठ के सपने बनाना।।

 दूर तलक पुरानी साइकिल से पीछा करना,
अगर एक नजर वो देख ले,
तो बस पूरे मोहल्ले को जलेबी खिलाना,
चुपके से उसके पास से गुजरना,
शायद एक बार फिर से वो मेहक मिल जाए इस आस में पास में जाना।।

सर्दी की कोई फिक्र नही,
बस यूंही घर से दौड़ जाना,
एक झलक बड़ी महंगी है मोहतरमा की,
वक्त मेरा बड़ा सस्ता हुआ करता था।।

 डरते हुए किताबें उससे मांगना,
फिर पिछले पन्ने पर चुपके से कुछ लिख देना,
पर डर से फिर मिला देना,
और ये सोचना की हल्का सा मिटाया है,
प्यार करती है मुझे,
ये भी पढ़ लेगी।।
उसकी खातिर नए नए ट्यूशन लगवाना,
किताबों में कम, उसकी आंखों को ज्यादा पढ़ना,
कोई कुछ बोल दे अगर तो गुस्से से लाल हो जाना,
पर फिर मन ही मन खुश हो जाना,
की मैं अकेला ही नही हु जो मोहब्बत को दिल में दबाए बैठा हु,
समझते तो लोग भी हैं।।
 सुभा शाम उसके घर के चक्कर लगाना,
एक झलक, एक दीदार की खातिर घंटो इंतजार करना,
कभी गार्ड से दोस्ती,
कभी कभी बेशर्मी की हदें पार करना,
अपनी गली से ज्यादा उसकी कॉलोनी में दोस्त बनाना।।

 हफ्ते भर से दो दो रुपए जोड़ कर वो दिल वाले ग्रीटिंग्स ढूंढ कर लाना,
सबके सोने का इंतजार करना,
फिर कार्ड्स पर इजहार लिखना,
फिर डरते डरते उसको कार्ड्स देना,
और जब उसके ना करने पर,
वो दिल का पत्थर हो जाना,
मोम की तरह पिघल जाना।।

फीकी पड़ गईं है वो यादें,
वो सर्द रातें, वो खट्टी मीठी बातें।।

Sunday, 16 January 2022

कश्मीर

एक बार वादी में- फिर जरूर आना-
वादी जब हरे से सफ़ेद होती है,

जब डल सफेद झीना सा पर्दा आंखो पर डाल-
मदमस्त होकर सोती है,

जब चीनार कोई शोर नहीं करता-
बस ख़ामोश किसी अधेड़ की तरह-
चुपचाप दिन गुज़रने का इंतज़ार करता है,

जब गुलमोहर सूख जातें हैं-
जब शाख़ों पर सेब नज़र न आते हैं,

जब परिंदें कहीं दूर निकल जाते हैं-
जब इंसानी शोर कहीं गुम हो जाते हैं,

तब एक बार वादी में-
फिर जरूर आना।

अच्छा, जिस तरह इंसानी जीवन में साल दर साल रंग बदलते हैं और इन्हीं गुजरते सालों में एक साल ऐसा भी आता है जिसमें सब रंगों से मुक्त होकर इंसान फाइनली बेरंग भी हो जाता है। ठीक कुछ कुछ इसी तरह वादी में भी हर साल रंग चढते भी हैं और उसे बेरंग भी करते हैं।

हर साल वादी जवाँ होती है हर साल वादी रवाँ होती है- हर साल ही बुढाती भी है और हर साल फिर जवाँ भी होती है और यह क्रम अनवरत जारी है। एक कभी न खत्म होते सिलसिले की तरह, ठीक एक नियंत्रित नाभिकीय संलयन अभिक्रिया की तरह।

शायद यही आदम और प्रकृति के बीच का अंतर भी है और बड़ी सीमा भी।

वादी में दो ही मौसम है- एक हरी बहार का और दूसरा सफ़ेद उतार का।

जिनका वादी से कोई वास्ता रहा है। वो बखूबी जानते हैं कि प्रकृति ने इस भूमि को क्या सौग़ात प्रदान की है, और क्यों ये जमीं इंसानों के लिये किसी जन्नत से कम नहीं।

कहते हैं कि काशी में दम तोड़ने से जन्नत मिलती है। पर वादी का क्या? जो जीते जी ही जन्नत से मिलाती है। हहह- थोडा सा कोन्टाड्रेक्टरी हो गया।

बहरहाल, वादी में दो ही मौसम होते हैं- एक सर्द और दूसरा बहुत सर्द।

सर्द मौसम की अपनी खासियत है- प्रकृति इस वक़्त वादी में अपने रोमांटसिज्म के चरम पर होती है। हरे बाग- हरे चिनार-हरे झरने- हरे सोते- हरी नदी- हरे चश्में - हरी डल- हरी ही हवा, हरा हर मौसम-

सब्बम् हरम् हरम्।

वादी बिल्कुल हरी हरी नज़र आती है- उसका ये हरापन ज़िंदगी में एक ताजगी एक रूहानियत से उसे सरोबार कर देता है। ऊँचे- ऊँचे हरे पहाड़- दूर तलक फैले हरे सब्ज़बाग़ यक़ीन मानों जैसे दोनों बाँहें पसारकर आमंत्रण दे रहें हों कि आ जाओ और कसकर लिपटकर तुम भी हमारी तरह हरे- हरे हो जाओ।

अपने हरे दामन में वादी बाकि बचे सभी रंगो को बड़ी मासूमियत और खामोशी से छुपा ले जाती है।

बहुत सर्द जो कि वादी में दो मौसमों के क्रम में दूसरा मौसम है। वादी उसमें बिल्कुल से बदल जाती है। अब कुछ भी हरा नहीं रहता। मानों एक बड़ी सी सूर्ख सफ़ेद चादर किसी ने बड़ी ही बेतरतीबी से वादी के सुडौल जिस्म पर बस फैंक सी दी हो।

सफ़ेद बाग- सफ़ेद चिनार- सफ़ेद झरने- सफेद सोते- सफ़ेद नदी- सफ़ेद चश्में- सफ़ेद ही डल- सफ़ेद सी हवा- सफेद से सब मौसम- सफेद ही सब हलचल। 

ज़िंदगी एकदम से हरी से सफ़ेद हो चलती है। बडें बड़े सफ़ेद पहाड़- दूर तलक फैले सफ़ेद सब्ज़बाग़, मानों मुँह मसोडकर खडें हैं और कह रहें है कि हमारे पास न आओ- क़रीब आओगे तो हमारी ही तरह बस सफ़ेद रह जाओगे।

बहुत सर्द मौसम में जब वादी एकदम सफ़ेद रहती है तब जिस्मानी हरकत सुस्त और नब्ज धीमी होती चली जाती है। वादी सच में बेहद सुस्त नजर आती है- किसी नईं नईं बेवा की तरह जो अभी नया सलीखा धीरे- धीरे सीख रही हो। 

ये वक़्त केवल और केवल गुज़ारने के लिये होता है। ये वक्त वादी में प्रकृति के आराम का वक़्त होता है। जब वो बेपरवाह होकर एक गहरी नींद में चली जाती है। फिर से तरोताज़ा होकर जागने के लिये।

सोचता हूँ काश वादी की तरह प्रकृति ने लगातार रंग बदलने की सहूलियत हम इंसानों को भी दी होती और इसी वजह से वादी से रश्क़ भी है और इश्क़ भी।

इश्क़ होना स्वाभाविक बात है और रही बात रश़्क की तो मामला थोड़ा सा पेचिदा है। काश कि इंसानी जीवन भी वादी की तरह होता- एक क्षण हरा और एक क्षण सफेद़ होता, फिर हरा- फिर सफ़ेद- फिर हरा होता। 

इंसान भी बच्चा होता- जवाँ होता - बुढाता और फिर बच्चा हो जाता- और फिर बुढाता! हहहह, कल्पना ही मन में गुदगुदी और तन में बहुत सा कंफ्यूजन पैदा कर दे रही है।

प्रकृति ने अपने इस वरदान से इंसान को महरूम ही रखा। 

उसने कहा है!
तू मर और लगातार मर-

और इसी क्रम में हम लगातार मर रहें हैं। 

बहरहाल! ये प्रसंग विशेषकर उनके लिये हैं जिन्होंने हरी वादी और वादी में हरा मौसम देखा है। उनका वादी में फिर आना बनता है। 

सफ़ेद वादी से मिलनें के लिये।

क्योंकि दोनों रंगों में केवल वो ही अन्तर कर पायेंगे।

एक बार वादी में- फिर जरूर आना,

तब!

जब वादी हरे से सफ़ेद होती है...

Tuesday, 19 March 2019

SON

#बेटे
डोली में विदा नही होते,
और बात है मगर

उनके नाम का "ज्वाइनिंग लेटर"
आँगन छूटने का पैगाम लाता है !

जाने की तारीखों के नज़दीक आते आते
मन बेटे का चुपचाप रोता है

अपने कमरे की दीवारें देख देख
घर की आखरी रात नही सोता है,

होश संभालते संभालते
घर की जिम्मेदारियां संभालनेने लगता है

विदाई की सोच में बैचेनियों
का समंदर हिलोरता है

शहर, गलियाँ , घर छूटने का दर्द समेटे
सूटकेस में किताबें और कपड़े सहेजता है

जिस आँगन में पला बढ़ा, आज उसके छूटने पर
सीना चाक चाक फटता है

अपनी बाइक , बैट , कमरे के अजीज पोस्टर
छोड़ आँसू छिपाता मुस्कुराता निकलता है ...

अब नही सजती गेट पर दोस्तों की गुलज़ार महफ़िल
ना कोई बाइक का तेज़ हॉर्न बजाता है

बेपरवाही का इल्ज़ाम किसी पर नही अब
झिड़कियाँ सुनता देर तक कोई नही सोता है

वीरान कर गया घर का कोना कोना
जाते हुए बेटी सा सीने से नही लगता है

ट्रेन के दरवाजे में पनीली आंखों से मुस्कुराता है
दोस्तों की टोली को हाथ हिलाता
अलगाव का दर्द जब्त करता, खुद बोझिल सा लगता है

बेटे डोली में विदा नही होते ये और बात है ........

फिक्र करता माँ की मगर
बताना नही आता है

कर देता है "आन लाइन" घर के काम दूसरे शहरों से
और जताना नही आता है

बड़ी से बड़ी मुश्किल छिपाना आता है
माँ से फोन पर पिता की खबर पूछते
और पिता से कुछ पूछना
सूझ नही पाता है

लापरवाह, बेतरतीब लगते है बेटे
मजबूरियों में बंधे
दूर रहकर भी जिम्मेदारियां निभाना आता है

पहुँच कर अजनबी शहर में जरूरतों के पीछे
दिल बच्चा बना माँ के
आँचल में बाँध जाता है

ये बात और है बेटे डोली में विदा नहीं होते मगर...

Tuesday, 25 September 2018

Echo of yr voice.


Sometimes
I feel the distance
and I get lost,
but then; 
the echo of your voice tells me to be strong.

So I silence my mind and I follow my path,
which ends up being ours; and I reserve the beautiful things for those tremble days while I send you the echo of my voice.

Who i am.?


Some days, to the world,
I feel like
the fake drawers on bathroom cabinets
or the false pockets
on a suit's vest;
a reasonable addition
that looks like it belongs,
but what possible purpose
will i ever serve?

Some days, to the world,
I feel like
a thunderstorm with too little thunder
and too much rain
and no fathomable idea
what to do with all the lightening
growing inside me.

Some days, to the world,
I feel like
a book with no cover and a title page
that is torn;
I am filled with words...
but only those that care to read...
will ever understand..
what i am about...
Who I am..

Wednesday, 29 August 2018

बस्तर डायरी

【बस्तर डायरी 】

सैकड़ों मासूम आदिवासी का मुखबिर बता सर कलम कर देना/ सड़क बना रहे इंजीनियरों का गला रेत देना/गरीब आदिवासियों से तेंदू पत्ते की जबरन उगाही करना/ सड़क-स्कूल-हॉस्पिटल सबसे आदिवासियों को वंचित रखना !!!

ठहरिये! यह किसी सीरिया या इराक की पृष्ठभूमि नहीं है। यह पृष्ठभूमि है बस्तर के अबूझमाड़ की जो सुकमा-बीजापुर-दंतेवाड़ा-नारायणपुर में फैले हुये जंगल के आदिवासियों के शोषण की बदस्तूर कहानी है जिसे आप आंतरिक आतंकवादी/नक्सलवादी कहते हैं और दिल्ली-मुम्बई के डीलक्स बंगलो में बैठे बुद्धिजीवी शोषित/दमित/सर्वहारा प्रतिनिधि/क्रांतिकारी कहते हैं।

आप बस्तर कभी गये हैं? जवाब होगा नहीं।
फेसबूक पर नक्सली आंदोलन(तथाकथित) के समर्थक गये हैं?जवाब होगा नहीं।

देखिये! हर इंसर्जेंसी का एक सोचा-समझा सुनियोजित सिंडिकेट होता है। वह स्थानीय लोगों को पहले तो भड़काता है। जाहिर सी बात है कि दुनिया का कोई भी देश हो, लोग अपनी व्यवस्था से थोड़ा-बहुत रोष अवश्य रखते हैं। यह सिंडिकेट उसी रोष को भुनाता है और बस्तर की बात की जाये तो जहां शिक्षा बिल्कुल ना हो/एक बड़े हिस्से ने ट्रेन तक नहीं देखा हो/सभ्यता इस कदर अवरोधित रही हो कि लोग अधनंगे घूमते हों, वहां ब्रेन वाश कर खुद को मसीहा और सरकार को एलियन समझा देना बड़ी आसान बात है।

आखिर बस्तर के लोगों ने हथियार उठाये थे क्या? नहीं!यह आंध्रा से भागे हुये नक्सलियों की शरणास्थली बनी थी, क्योंकि आंध्रा सरकार नक्सलियों के समापन के लिये प्रतिबद्ध हो चुकी थी। यह क्षेत्र भोपालपट्टनम कॉरिडोर के जरिये नक्सलियों  का एक सुरक्षित पनाहगाह बना, क्योंकि जंगल छुपाव होता है। आदिवासियों को उनकी मौजूदगी हरगिज पसंद नहीं आयी थी। सो एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत धीरे-धीरे उनका ब्रेन वाश किया गया और जो नहीं माने उनको तालिबानी फरमान के जरिये बीच गांव सर कलम कर दिया गया जिसे बौद्धिक लोग'जनताना अदालत'की संज्ञा देते हैं।

दशकों से सरकारी तंत्र का इस हिस्से में प्रवेश नहीं था। वजह थी सुदूर क्षेत्र/घना जंगल/बुनियादी व्यवस्थाओं का अभाव और हम आप जैसे लोग जो बस्तर को अब हाल से जानते हैं।

आंध्रा से भागे कॉमरेडों ने इसी क्षेत्र को पनाहगाह बनाया। किसी बस्तरिया का इसमें कोई रोल नहीं रहा था कभी भी, यकीन नहीं तो सर्च करके देखियेगा टॉप के सारे कैडर आंध्रा के ही मिलेंगे।

वर्तमान की बात कहूं तो अब यह एक सिंडिकेट की तरह चलता है। जंगल में हथियार उठाये नक्सली घूमते हैं, जिन्हें निर्देश टॉप कैडर देता है। इस विंग के विचारक शेष भारत में इनके लिये सिम्पेथी गेन करते हैं। जाहिर है कि आप अपनी सरकार को शोषक और फौज को बलात्कारी मानने में तनिक भी देर लगायेंगे नहीं। तो इनका काम आसान हो जाता है। जब सरकार इनपर थोड़ी भी सख्ती दिखाती है तो 'मानवाधिकार'के नाम पर तमाम बौद्धिक इस कदर दबाव बनाते हैं कि सरकार को मजबूरन नरमी बरतनी पड़ती है। वजह? वजह हैं आप! आप घर बैठे इस कदर भावुक हो गये। गूगल ज्ञान से कई पोस्ट लिख दिये। आपको दो मिनट नहीं लगा सरकार और फौज को हत्यारा बताने और सोचने में और यह सिंडिकेट कामयाब हो गया।

कभी आपने सोचा कि मानवाधिकार के धंधे पर फल-फूल रहे NGO और इनके बौद्धिक संचालक विलासी जीवन को छोड़ बस्तर जाकर क्यों नहीं रहते?क्यों नहीं वो आदिवासी हितों के लिये वहां काम करते हैं? एक गर्भवती आदिवासी महिला तड़प-तड़प कर मर जाती है क्योंकि सड़क है ही नहीं जो उसको अस्पताल समय पर लाया जाता! ये बौद्धिक क्यों नहीं विरोध करते नक्सलियों का सड़क काटने पर/सड़क निर्माण में लगे मजदूरों की हत्या का/ सड़क को सुरक्षा दे रहे फौज पर हो रहे हमलों का?

आखिर सड़क-शिक्षा-स्वास्थ्य-बिजली से ग्रामीणों को अलग रखकर कौन सी क्रांति चलती है?कभी सोचे हैं! नहीं तो सोचिये अब।

अब बात करता हूँ एन्टी नक्सल आपरेशन का। जब भी फौज/पुलिस जान पर खेल नक्सलियों को मारती है तब अक्सर कुछ नामचीन प्रोटेस्ट करते दीखते हैं। यह बताते हैं कि यह गरीब मासूमों की हत्या है। फेक एनकाउंटर है।

मासूम हथियार लेकर घूमते हैं क्या? और जो फौज को मारे थे फिर वो क्या थे? द्वंद का उत्तर आपके पास ही है, अगर आप भावुक बने बिना निर्णय लेंगे तो।
क्यों माना आपने उनकी बात को?क्या वो एनकाउंटर के समय वहां थे?आखिर!महानगरों में बैठ वो कैसे निर्णय लिये कि यह एनकाउंटर फेक था और मारे गये लोग तथाकथित मासूम और निर्दोष थे? यह प्री प्लान्ड रहता है, जिसमें थिंक टैंक का काम ही यही रहता है ताकि शेष भारत से सिम्पेथी ली जा सके और नक्सलियों को जस्टिफाई कर फौज को हत्यारा और सरकार को शोषक सिद्ध किया जा सके।

बाकी मुझपर विश्वास करें, यह बिल्कुल जरूरी नहीं। आप स्वयं पहुंचिये घटनास्थल पर। ग्रामीणों से पूछिये। जिनका एनकाउंटर हुआ है उनपर पहले से दर्ज अपराधों की जानकारी प्राप्त कीजियेगा। अब यह मत कहियेगा कि पुलिस ने फर्जी केस दर्ज कर दिया होगा। ऐसा होता तो 1991 के अपराधी का फेक एनकाउंटर 2018 में नहीं किया जाता। किया जाता क्या?

तमाम बलात्कार के आरोप लगते रहे। आगे भी लगेंगे।इस कदर होहल्ला होना सुनायी दिया, किंतु केस का निर्णय क्या रहा, यह कभी पता किया आपने?अब आप कहेंगे कि केस पुलिस ने दबा दिया। उसे दबाना ही होता तो वो लेती क्यों? जाकर पूछियेगा कभी उन महिलाओं से कि किसने बन्दूक माथे पर रखकर केस करवाया था।लेकिन आपको रूचि सिर्फ फौज को बलात्कारी कहने में थी।अंजाम कुछ भी रहा हो, यह खालिस बौद्धिक सिंडिकेट यहां भी सफल रहा।

अब बात करूंगा सरकार की। मैं राजनीतिक बात करने से हमेशा बचता हूँ। लेकिन जब छत्तीसगढ़ में माननीय मुख्यमंत्री रमन सिंह की सरकार को देखता हूँ तो यही सोचता हूँ कि हर राज्य को ऐसी सरकार मिलनी चाहिये।हैरत होती है बीजापुर-सुकमा के सरकारी अस्पतालों को देख कर/मिल रही डीलक्स सुविधाओं को देख कर/मुफ्त दवाइयों का बेहतरीन स्टॉक/बिजली की बेहतरीन सुविधा वो भी सुदूर क्षेत्रों तक/युद्धस्तर पर सड़क निर्माण/ शिक्षा के लिये शानदार परिसर और सुविधायुक्त स्कूल/ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और स्वच्छता को/किसी भी तंत्र में बिचौलियाविहीन व्यवस्था को देखकर।

पुनश्च कहुंगा कि मेरे बात पर भरोसा करने की कोई वजह नहीं, लेकिन किसी विद्वान की बात को ही सच मान कर सरकार को गाली देने से तो बेहतर है कि एक बार खुद बस्तर घूम आइये। मैं दावे से कह सकता हूँ कि यहां बैठ कर जो लोग नक्सलियों से सहानुभूति की बात करते हैं/लिखते हैं उनमें से शायद ही कोई कभी बस्तर गया होगा। अगर गया होगा भी तो पूर्व निर्मित मानसिकता के साथ वो भी महज दो-चार दिन के लिये।

जंग कभी भी जायज नहीं। टैंक ने हमेशा धरती माँ की गोद बांझ ही की है। लेकिन जंग अगर जायज ही है तो सिर्फ एक सवाल आखिर में आपसे कि सुबह उठते ही एक आदमी आपके घर के बाहर आपको AK-47 लिये दीखे। निर्णय आपका है कि वो मुझे होना चाहिये या किसी नक्सली/आतंकवादी को।

भावुक होकर निर्णय मत किया कीजिये । NGO के नाम पर अथाह पैसा कमाने वाले थिंक टैंक का काम ही होता है आपको बरगलाना/शब्दों-तर्कों के मायाजाल से दिग्भ्रमित करना/एनकाउंटर को फेक बताना और फौज की शहादत को सरकार पर थोपना। यही ब्लू प्रिंट है जो हर इंसर्जेंसी का मूल सिद्धांत होता है।

बाकी सरकार आपकी है और फौज भी आपकी ही है। गाली दीजिये या सम्मान कीजिये, उसे अपने कर्तव्य का बोध है क्योंकि वह लोकतंत्र के मूल्य को जानती है। वह नक्सली नहीं है जो अपने बच्चे को भर्ती भेजने से मना करने पर बाप का पैर काट लेती हो और बहन को जबरन जंगल लेकर चली जाती हो।

आधे गिलास पानी को आधा भरा या आधा खाली कह देना सकारात्मकता/नकारात्मकता हो सकती है, लेकिन कुछ बूंद पानी कम हो तो उसपर विरोध विशुद्ध मूर्खता है क्योंकि लोकतंत्र में एक-एक नागरिक की भागीदारी कहीं ना कहीं बनती ही है।

Wednesday, 22 August 2018

जो हो नही पाया हमारा , हम उसी के हो गए हैं।


प्रेम को कुछ इस तरह से जी रहे हैं आजकल हम
हो न पाया जो हमारा हम उसी के हो गए हैं !

ज़ोर से थामे हुए हैं इक तरफ़ से डोर को हम
देख सकते हैं इधर से जबकि ख़ाली छोर को हम
एक हठ है या समर्पण ये नहीं हम जानते हैं
हो नहीं सकते अलग उससे यही हम मानते हैं

इस विरह के काल में कुछ स्वप्न ले अंतिम विदाई
शुष्क आँखों की सतह पर बूँद खारी बो गए हैं !

रात को उठ उठ विकल हो चाँद अपना खोजते हैं
बावले हैं धूप में भी बाट उसकी जोहते हैं
एक तारा तक नहीं अब मन लुभाता है हमारा
मन उसी का हो गया जिसने किया हमसे किनारा

इस जगत की बात कोई क्या भला अब हम सुनेंगे
खो गया जो आसमां में हम उसी में खो गए हैं !

नैन श्यामल मेघ से हम आँज कर बैठे हुए हैं
हम सभी से और अपने आप से रूठे हुए हैं
क्या सहर क्या साँझ अब तो हर पहर उसका हुआ है
साथ जो आया नहीं है ,ये सफ़र उसका हुआ है

यूँ नहीं हम आ गए हैं प्रेम की वीरान नगरी
प्यार से उसने बुलाया था हमें ही,,तो गए हैं !